भारत के लिए
मोक्ष अंतिम बात है। उसके पार फिर कुछ नहीं है ।
दुनिया में कहीं
भी मोक्ष आखिरी बात नहीं है। दुनिया में मनुष्य के चैतन्य की इतनी गहराई से खोज ही
नहीं हुई। भारत ने चार पुरुषार्थ कहे हैं. अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। अधिक
संस्कृतियां बहुत अगर ऊंची उठीं, तो धर्म तक जाती हैं।
अब यह बड़े मजे
की बात है, मोक्ष धर्म के भी पार है। मुक्त
तो कोई तभी होता है, जब धर्म भी छूट जाता है। वह आखिरी बंधन
है; बड़ा प्रीतिकर, बड़ा मधुर, मगर वह भी बंधन है। अगर तुम हिंदू हो, मोक्ष दूर है
अभी। अगर मुसलमान हो, तो मोक्ष अभी दूर है। धर्म तक आ जाओगे।
हमने उसे तीसरा ही पड़ाव कहा है, मंजिल नहीं। मोक्ष तो तब है,
जब धर्म भी छूट गया, शास्त्र भी छूट गए,
शब्द भी छूट गए। तुम्हें पता ही न रहा कि तुम कौन हो। कोई आइडेंटिटी,
कोई तादात्म्य न रहा। कोई तुमसे पूछे, तो तुम
हंसोगे; कुछ भी न कह पाओगे—हिंदू कि
मुसलमान, कि जैन, कि बौद्ध।
और एक गहरे अर्थ
में तुम सभी हो गए। मंदिर भी तुम्हारा, मस्जिद भी तुम्हारी, गुरुद्वारा भी तुम्हारा;
और न कोई गुरुद्वारा रहा तुम्हारे लिए, न कोई
मस्जिद रही, न कोई……। कुरान भी गई,
गीता भी गई, वेद भी गए, बाइबिल
भी गई। और एक अर्थ में सब घर आ गया, वेद भी तुम्हारा,
बाइबिल भी तुम्हारी, गीता भी तुम्हारी।
तुम अब बंधे न
रहे। तुम पार हो गए, एक अतिक्रमण हुआ।
मोक्ष बड़ी अनूठी
बात है। वह पूर्वीय धारणा है। दुनिया की कोई जाति उतनी ऊंची नहीं गई। ज्यादा से
ज्यादा जातियां धर्म तक ऊंची गईं। जो उतने भी नहीं जा सके, वे काम तक गए—अर्थ, काम। काम यानी वासना, सेक्स। अधिक लोग काम तक ही जा
पाते हैं। जो उनसे भी नीचे हैं—वैसे भी बहुत लोग हैं;
बड़ी संख्या है उनकी—जिनके लिए अर्थ ही सब कुछ
है, धन।
अब यह थोडा
सोचने जैसा है। जिसके जीवन में धन ही सब कुछ है, वह कामवासना वाले व्यक्ति से भी निम्न चेतना दशा का है। क्योंकि धन तो
मुर्दा है। कामवासना कम से कम प्राकृतिक तो है, जीवंत तो है।
धन तो जोड़ता नहीं, तोड़ता है। धन तो शोषण है, धन तो हिंसा है। प्रेम कम से कम जोड़ता तो है। किसी से भी जोड़ता है—एक स्त्री से, एक पुरुष से, परिवार
से—कोई संबंध तो बनाता है। कामवासना में कुछ सेतु तो है! धन
में तो कोई सेतु नहीं है। इसलिए धन का दीवाना किसी से भी नहीं जुड़ता। उसके आस—पास कोई जगह नहीं होती जहां से तुम संबंध बना लो। वह संबंधों से डरता है।
क्योंकि संबंध बने कि झंझट आई। कहीं उसका धन न मांगने लगो! संबंध बने, तो कुछ खर्च भी करना पडेगा। संबंध बने, तो तुम्हें
उसने निकट लिया। निकट डर है, क्योंकि तिजोरी के पास आ रहे
हो। तुम्हारा हाथ उसकी जेब में जा रहा है। इतने पास वह किसी को भी न लेगा।
सबसे निम्नतम
चेतना है, जिसका लक्ष्य जीवन में अर्थ है। धन, मकान, वस्तुएं, वह निम्नतम
चेतना है। और वह संस्कृति निम्नतम है, जो अर्थ पर पूर्ण हो
जाती है।
उसके ऊपर काम
है। कम से कम दूसरे से जुड्ने की थोडी संभावना है, द्वार खुला है। कोई बहुत बड़ा द्वार नहीं है, बड़ा
क्षुद्र द्वार है, लेकिन है। कोई बहुत विराट द्वार नहीं है,
संकीर्ण है, उसमें से घसिटकर आना और जाना भी
कष्टपूर्ण है। और उससे दूसरे से तुम जुड़ते भी हो और नहीं भी जुड़ते। क्योंकि जिससे
भी तुम्हारा कामवासना का संबंध है, उससे गहरा संबंध हो ही
नहीं पाता। यह बड़े मजे की बात है। अगर तुम पति हो और तुम्हारी पत्नी से तुम्हारा
केवल कामवासना का संबंध है, तो संबंध ही नहीं है। नाममात्र
को है। एक ने दूसरे के हृदय को जाना .नहीं, पहचाना नहीं। एक
ने दूसरे के जीवन में न तो कोई गहराई छुई; एक ने दूसरे की
गहराई को पुकारा ही नहीं। बस, शरीर के ऊपर परिधि पर थोड़ा—सा मिलन है। और वह भी मिलन क्षणभंगुर है। फिर फासला है, फिर मिलन है, फिर फासला है। मिलना और बिछुड़ना,
मिलना और बिछुडना। और बिछुडना चौबीस घंटे है, मिलना
क्षणभर को है। इसलिए कोई बड़ा संबंध नहीं है।
और जिससे भी
तुम्हारा कामवासना का संबंध है, उससे तुम्हारा संघर्ष
जारी रहेगा, द्वंद्व जारी रहेगा, विरोध
जारी रहेगा। क्योंकि तुम्हें भीतर गहराई में ऐसा लगता ही रहेगा कि मैं निर्भर हूं;
अपनी वासना की तृप्ति पर निर्भर हूं।
इसलिए पति
पत्नियों से लड़ते ही रहेंगे, पत्नियां पतियों से
लड़ती ही रहेंगी। जब तक उनके बीच से कामवासना तिरोहित न हो जाए, तब तक संघर्ष जारी रहेगा। जब तक पति—पत्नी उस जगह न
आ जाएं, जहां उनके भीतर तीसरा चरण उठ जाए, धर्म का, तब तक कलह जारी रहेगी; तब तक उन दोनों के बीच शाति का राज्य स्थापित नहीं हो सकता। और ऐसा संबंध
भी क्या, जो सिर्फ कलह का संबंध है!
तो माना, रुपए—पैसे के बीच अगर तुलना
करनी हो, अगर मुझसे कोई पूछे कि कामवासना या धन की दौड़?
तो मैं कहूंगा, कामवासना। कम से कम थोड़े तो
बाहर आओगे। बहुत सुंदर रूप से न आओगे, मगर आओगे तो! मुख्य
द्वार से न आओगे, सरकते हुए, सेंध
लगाकर आओगे किसी दीवाल में, आओगे तो! ठीक है, चलो, इतना ही सही। जुडोगे तो। जुड़ना कोई गहरा न होगा,
परिधि—परिधि का मिलन होगा, हृदय हृदय से फासले पर रहेंगे। पर चलो, कुछ शुरुआत
तो हुई।
जो संस्कृतियां
अर्थ और काम, दो पर ही समाप्त हो जाती हैं,
वही अधार्मिक संस्कृतियां हैं।
फिर तीसरा है
द्वार धर्म का। धर्म तुम्हें खोलता है। तुम्हें तुम्हारे शरीर के ऊपर उठाता है। और
कहता है, तुम शरीर ही नहीं हो। तुम्हें चैतन्य बनाता है।
तुम्हें चैतन्य की पहली गंध देता है; चैतन्य का पहला स्वाद
देता है। फिर तुम धर्म से जुड़ते हो जब, तब बड़ी और ही बात हो
जाती है। जब पति—पत्नी ऐसी जगह आ जाते हैं, जहां उनके बीच नाता वासना का नहीं, काम का नहीं,
धर्म का हो जाता है, तभी प्रेम पैदा होता है।
प्रेम धर्म की
छाया है। धार्मिक व्यक्ति के आस—पास प्रेम बरसता है।
तुम फर्क समझ सकते हो। कामवासना से भरे व्यक्ति के पास तुम एक तरह की दुर्गंध
पाओगे। धर्म से भरे व्यक्ति के पास तुम एक तरह की सुगंध, एक
ताजगी, सुबह की ओस की ताजगी, नए ताजे
फूलों की गंध पाओगे।
जब धार्मिक
व्यक्ति तुम्हारी आंखों में देखेगा, तो तुम्हारे भीतर आश्वासन का जन्म होगा, भय का नहीं।
कामवासना से भरा हुआ व्यक्ति तुम्हारी आंखों में देखेगा, तो
तुम भयभीत होओगे, तुम कंप जाओगे। वह तुम्हारे शरीर के पीछे
है, तुमसे उसे कोई प्रयोजन नहीं है। तुम हो या नहीं, इससे कोई अर्थ भी नहीं है। उसका रस तुम्हारी देह में है। बस, देह से ज्यादा उसकी गहराई नहीं है।
धर्म प्रेम तक
ले जाएगा। और धर्म तुम्हें एक से नहीं जोड़ेगा, बहुतों से जोड़ देगा। काम तुम्हें एक से जोड़ेगा और बहुतों से तोड़ देगा। काम
का संबंध ईर्ष्या का, वैमनस्य का, प्रतिस्पर्धा
का संबंध है।
तुम्हारी पत्नी
चौबीस घंटे डरी रहेगी कि तुम किसी और स्त्री की तरफ तो नहीं देख रहे! तुम्हारा पति
सदा भयभीत रहेगा कि पत्नी किसी और पुरुष में उत्सुक तो नहीं है! वह बड़ा संकीर्ण है
और ओछा है; इतनी संकीर्णता में हृदय का कमल
खिल ही नहीं सकता। फिर एक धर्म का जगत है। वहां तुम्हारे जीवन में प्रतिस्पर्धा
गिरती है, ईर्ष्या गिरती है, परिग्रह
गिरता है। तुम धीरे — धीरे शाति की तरफ उत्सुक होते हो,
मौन की तरफ उत्सुक होते हो। मंदिर की तरफ तुम्हारी यात्रा शुरू होती
है।
धर्म के जगत में
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, पूजागृह महत्वपूर्ण हो जाते हैं। गीता, कुरान,
बाइबिल महत्वपूर्ण हो जाते हैं। सत्संग, सदवचनों
का सुनना, सज्जनों का साथ रस देने लगता है। एक नई ही वीणा
बजने लगती है। तुम पहली दफा अनुभव करते हो कि पदार्थ पदार्थ ही नहीं है, इसमें परमात्मा छिपा है। कण—कण में तुम्हें उसकी
प्रतीति की थोड़ी—सी झलकें आनी शुरू हो जाती हैं। कभी—कभी अचानक वातायन खुल जाता है और तुम पाते हो कि लोग साधारण नहीं हैं,
असाधारण हैं। यहां प्रत्येक वस्तु में, वह
कितनी ही साधारण हो, बड़ी असाधारण गरिमा छिपी है। प्रत्येक
वस्तु एक आभा से मंडित हो जाती है, एक गरिमा व्याप्त हो जाती
है। यह जगत तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम किसी अजनबी जगह हो, यह तुम्हारा घर है। विरोध छूटता है, संघर्ष मिटता है,
सहयोग शुरू होता है।
धार्मिक व्यक्ति
के जीवन का स्वर सहयोग है। उसकी भाषा संघर्ष की नहीं रह जाती।
कुछ संस्कृतियां
धर्म तक जाती हैं। लेकिन पूरब वहां नहीं रुकता। वह कहता है, अभी एक कदम और। और वह है, मोक्ष।
मोक्ष का अर्थ है, अब तुम इससे भी मुक्त हो जाओ।
मोक्ष बड़ी अनूठी
धारणा है। क्योंकि सहयोग का भी मतलब है। कि कहीं न कहीं संघर्ष की धुन मौजूद होगी, नहीं तो सहयोग। किससे? किस बात
का? मित्रता का अर्थ यह है कि कुछ शत्रुता। शेष होगी,
नहीं तो मित्रता की क्या जरूरत? प्रेम का अर्थ
यह है कि घृणा कहीं छिपी होगी, मौजूद होगी, अन्यथा प्रेम का भी का सवाल? और तुम्हें कण—कण में परमात्मा दिखाई पड़ता है, इससे बात साफ है कि
अभी पदार्थ और परमात्मा दो हैं, एक नहीं हुए। अभी कण भी है
और उसमें परमात्मा दिखाई पड़ रहा है।
एक फकीर मेरे
पास मेहमान थे, कोई पांच वर्ष पहले। वे मुझसे
कहने लगे, मुझे तो कण—कण में परमात्मा
दिखाई पड़ता है। मैंने पूछा कि कण—कण भी दिखाई पड़ता है और
परमात्मा भी? दोनों! वे थोड़े चौंके। उन्होंने कहा कि दिखाई
तो दोनों ही पड़ते हैं। तो फिर, मैंने कहा, परमात्मा अभी पूरा नहीं हुआ। नहीं तो कण खो ही जाएगा।
मोक्ष की दशा
में परमात्मा ही है। फिर ऐसा नहीं है कि दिखाई पड़ता है वृक्ष में। वृक्ष है ही
नहीं, परमात्मा ही है। वृक्ष परमात्मा का एक रूप है।
परमात्मा कहीं छिपा है, ऐसा नहीं; परमात्मा
प्रकट है।
धर्म के जगत में
परमात्मा छिपा है, अप्रकट है। प्रतीति
होती है। थोड़ी झलकें आती हैं। थोड़ा खयाल आना शुरू होता है। चेतना जग रही है।
धर्म का जगत ऐसे
है, जैसे सुबह तुम बिस्तर पर पड़े हो, उठना चाहते हो, थोड़ी नींद टूट भी गई है, नहीं भी टूटी है, अलसाए हुए हो। सड़क पर कोई दूध बेच
रहा है, आवाज सुनाई पड़ती है। पत्नी उठ गई और बरतन साफ कर रही
है, और आवाज सुनाई पड़ती है। और बच्चा स्कूल नहीं जाना चाहता,
रो रहा है, और थोड़ा—सा
खयाल आता है। ऐसी झलक आ रही है कि दुनिया जाग गई; उठो।
धर्म अलसाई हुई
दशा है। न तो आदमी सोया हुआ है, न अभी जागा हुआ है;
मध्य में है। मोक्ष परिपूर्ण जाग्रत चैतन्य का नाम है। मोक्ष शब्द
का ही अर्थ है, मुक्ति, जहां कोई
परतंत्रता न रही।
और इसे तुम ठीक
से समझ लो। क्योंकि पूरब में जिन्होंने बहुत गहन खोज की है, उन्होंने कहा, जब तक दूसरा है,
तब तक परतंत्रता रहेगी। दूसरे की मौजूदगी ही परतंत्रता है। जब तक दो
हैं, तब तक अड़चन रहेगी। अद्वैत चाहिए, तभी
स्वतंत्र हो पाओगे। जब स्व ही बचे और कुछ न बचे, तभी
स्वतंत्र हो पाओगे। जब तक दूसरा है, तब तक दूसरा तुम्हारी
सीमा बनाएगा।
तुमने कभी खयाल
किया, तुम अकेले अपने बाथरूम में होते हो, तब एक तरह की स्वतंत्रता होती है। तुम मुस्कुराते हो, गीत गाते हो, गुनगुनाते हो। जिनको लाख समझाओ कि जरा
गुनगुना दो लोगों के सामने, वे भी बाथरूम में बड़े मधुर गीत
गाते हैं।
दूसरे की
मौजूदगी में परतंत्रता है। दूसरा मौजूद है, तो तुम सिकुड़े। अगर तुमको पता चल जाए कि कोई चाबी के छेद से झांक रहा है,
तो तुम वहां भी सिकुड़ जाओगे, वहां भी डर
जाओगे। वहां भी तुम्हारी स्वतंत्रता छिन जाएगी। तुम परतंत्र हो गए। दूसरे की नजर
आई कि तुम परतंत्र हुए।
रास्ते पर तुम
अकेले जा रहे हो, तुम्हारी चाल और होती
है। फिर अचानक कोई रास्ते पर निकल आया, तुम्हारी चाल तत्थण
बदल जाती है। तुम्हें होश नहीं है, इसलिए तुम्हें पता नहीं
चलता; लेकिन सब बदल जाता है। अकेले में तुम और ही होते हो;
दूसरे के सामने तुम और ही हो जाते हो, एकदम
तुम्हारा चेहरा झूठा हो जाता है। जिन्होंने खोजा, उन्होंने
पाया है कि जब तक हम अकेले ही न बचें, तब तक कुछ पूरी
स्वतंत्रता नहीं उपलब्ध हो सकती।
मोक्ष का अर्थ
है, तुम डूब गए सर्व में और सर्व डूब गया तुममें। बूंद
गिरी सागर में, सागर गिरा बूंद में। अब कोई दूसरा न रहा,
दुई मिट गई। अब ऐसा नहीं है कि परमात्मा दिखाई पड़ता है कहीं,
अब परमात्मा ही है, देखने वाला और दिखाई पड़ने
वाला।
इसलिए कुछ
ज्ञानियों ने तो परमात्मा को भी इनकार कर दिया, क्योंकि उससे दुई पता चलती है। महावीर ने कहा, कौन
परमात्मा? कैसा परमात्मा? आत्मा ही
परमात्मा है।
इसे तुम ठीक से
समझना। यह महाज्ञान का शब्द है। नासमझ समझे कि महावीर नास्तिक हैं। बुद्ध ने इनकार
ही कर दिया; परमात्मा से ही नहीं, आत्मा से भी, कि कौन? क्योंकि
जब भी तुम कुछ कहो, कोई भी शब्द उपयोग करो, हर शब्द दूसरे की मौजूदगी को पैदा करता है।
अगर तुम कहो
आत्मा है, तो उसका अर्थ यह हुआ कि तुम आत्मा को भिन्न कैसे
करोगे? अनात्मा भी होगी। जब तुम कहते हो प्रकाश है, तुमने अंधकार स्वीकार कर लिया। जब तुम कहते हो परमात्मा है, तब तुमने संसार स्वीकार कर लिया। जब तुम कहते हो मोक्ष है, तो तुमने बंधन स्वीकार कर लिया।
इसलिए बुद्ध ने
कहा कि न तो कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है,
न कोई मोक्ष है। यह परम मोक्ष की अवस्था है; यह
परम मुक्ति है, यह निर्वाण है। और यही लक्ष्य है।
ठीक ही है कि
अठारहवा अध्याय मोक्ष—संन्यास—योग है। मोक्ष है परम लक्ष्य। संन्यास है मार्ग उस परम लक्ष्य को पाने का।
मोक्ष को पाना है, संन्यास से पाया जाता है। और कोई पाने का
उपाय नहीं है। अकेले होना है, इतने अकेले हो जाना है कि सब
तुममें समाहित हो जाए, तो इसकी यात्रा का प्रस्थान बिंदु
संन्यास है। पूरब की दो ही खोजें हैं, मोक्ष—गंतव्य, संन्यास—मार्ग।
सिकंदर शिष्य था
प्लेटो का। प्लेटो की धारणाएं धर्म तक पहुंच जाती हैं। लेकिन मोक्ष की उसे भी कोई
समझ नहीं है। जब सिकंदर भारत आने लगा, तो उसने कहा, भारत से लौटते वक्त तुम बहुत चीजें
लूटकर लाओगे, एक चीज मेरे लिए ले लाना, एक संन्यासी ले आना। मैं एक संन्यासी को देखना चाहता हूं। यह संन्यास क्या
है!
यह अनूठा फूल
भारत में ही खिला है। यह खिल ही नहीं सकता था दूसरी संस्कृति में, क्योंकि मोक्ष की धारणा ही न थी तो संन्यास का सवाल
कहा उठता है! जब मोक्ष का गंतव्य होता है सामने, तो फिर
संन्यास का विज्ञान उठता है।
अर्जुन आखिरी
जिज्ञासा कर रहा है। उसके पार फिर कोई जिज्ञासा नहीं होती। वह आखिरी जिज्ञासा कर
रहा है, संन्यास की और मोक्ष की। इसे तुम समझो।
अर्जुन बोला, हे महाबाहो, हे हृषीकेश,
हे वासुदेव, मैं संन्यास और त्याग के तत्व को
पृथक—पृथक जानना चाहता हूं। मुझे साफ—साफ
समझा दें, क्या है संन्यास और क्या है मोक्ष!
यह आखिरी
जिज्ञासा है, इसके पार कोई जिज्ञासा हो नहीं
सकती। और जो पूछना था, पूछ लिया। अब आखिरी बात पूछने को आ गई
है।
मुझे अलग—अलग करके समझा दें……।
क्योंकि धारणाएं
संन्यास की, मोक्ष की, त्याग
की बड़ी सूक्ष्म हैं और बहुत नाजुक हैं। और ज्ञानियों ने बहुत तरह के वक्तव्य दिए
हैं, इसलिए बड़ी उलझन वहां भी है।
पहले कहता है, हे महाबाहो, हे हृषीकेश,
हे वासुदेव…..!
यह सिर्फ वह
अपने हृदय की बात कह रहा है। हृदय थकता नहीं प्यारे को पुकारने से। तीन—तीन बार दोहराता है! वह यह कह रहा है कि हृदय तो
आश्वस्त है कि तुम जो कहोगे, ठीक ही होगा; बुद्धि आश्वस्त नहीं है। पहले हृदय को रख देता है सामने।
पुरानी परंपरा
थी कि जब तुम गुरु के पास जाओ, तो पहले चरण छुओ,
फिर पूछो। वह केवल इतना ही कहना था कि ऐसे तो चरणों में झुका हूं;
आप जो कहेंगे, वह ठीक ही होगा; उसमें गलत होने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन मैं अबुद्धि हूं। और मेरी
बुद्धि में अभी बहुत—सी चिंतनाएं चलती हैं……।
तो चरण में
झुकना प्रतीक है कि संवाद की तैयारी है, सुनने को राजी हूं, श्रावक बनने को आया हूं र विवाद
की उत्सुकता नहीं है। तब पूछता है शिष्य।
हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे वासुदेव,
मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक —पृथक
जानना चाहता हूं। कृष्ण बोले, हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास जानते हैं। और
कितने ही विचक्षण पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। तथा कई मनीषी
ऐसा कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के
योग्य हैं। और दूसरे विद्वान ऐसा भी कहते हैं कि यज्ञ, दान
और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।
पंडित का अर्थ
उस दिन कुछ और था, आज कुछ और है। पंडित
का अर्थ उन दिनों प्रज्ञावान पुरुष था, जिसने जाना है। आज
पंडित का अर्थ होता है शास्त्रज्ञ, जो शास्त्र को जानता है।
इन दोनों में बड़ा फर्क हो गया है। आज पंडित शब्द तो निंदित है। किसी को पंडित कहने
का अर्थ ही यह है कि वह कुछ नहीं जानता, कोरा पंडित है! शब्दों
की भरमार है। अनुभव से खाली है।
उन दिनों पंडित
का अर्थ था, जो प्रज्ञा को उपलब्ध हो गया है,
जिसने अंतर्ज्योति को जला लिया है।
कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन,
कितने ही प्रज्ञावान पुरुष काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास जानते
हैं।
काम्य कर्म क्या
है? अगर तुम गीता की टीकाएं पढ़ोगे, तो
काम्य कर्म के संबंध में गीता के टीकाकार जो कहते हैं, वह
बिलकुल ही गलत कहते हैं। गीता के सभी टीकाकार यह मानकर चलते हैं कि काम्य कर्म वे
कर्म हैं, जो वेद—विहित हैं, करने योग्य हैं, जिनको करना ही चाहिए।
अगर यह बात ठीक
हो.। यह बात भी ठीक हो सकती है, क्योंकि प्रज्ञावान
पुरुष सदा ही शास्त्र, वेद से मुक्ति की तरफ ले जाना चाहते
हैं।
लेकिन यह बात
मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ती। मेरी दृष्टि में काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहने
का अर्थ यह नहीं हो सकता कि जो कर्म वेद—विहित
हैं, उनका त्याग।
काम्य कर्मों का
त्याग एक ही अर्थ रख सकता है कि कर्म दो तरह के हैं। एक, जो आवश्यक हैं; और दूसरे,
जो काम्य हैं। आवश्यक कर्म तो ऐसा है, जैसे
भूख लगेगी, तो भोजन जुटाना पड़ेगा। कैसे तुम जुटाते हो,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बुद्ध को भी जुटाना पड़ता है। वे भी
भिक्षा के लिए गांव में निकलते हैं।
यह तो जरूरत है, यह तो आवश्यकता है। प्यास लगेगी, तो शरीर के लिए पानी देना पड़ेगा। न दोगे, तो
आत्महत्या का पाप लगेगा। वर्षा है, छप्पर खोजोगे। धूप घनी है,
तो बुद्ध भी छायापूर्ण वृक्ष के नीचे बैठते हैं। ये काम्य कर्म नहीं
हैं, ये अनिवार्य कर्म हैं। इनका तो त्याग कोई प्रज्ञावान
पुरुष नहीं कहता।
काम्य कर्म वे
हैं, जो वासनाजन्य हैं। जैसे, बड़ा
मकान चाहिए। जरूरत शायद न भी हो, सिर्फ अहंकार की आकांक्षा
हो। क्योंकि छोटे मकान में छोटा अहंकार लग सकता है। बड़े मकान में बड़ा अहंकार लग
सकता है। शायद सोने के लिए तो जितनी जगह तुम छोटे मकान में लेते हो, उतनी ही बड़े मकान में लोगे। लेकिन बड़ा मकान चाहिए।
लोग बड़ा मकान
जिंदा में ही नहीं चाहते, मरकर भी चाहते हैं।
सम्राट तो अपनी कब भी पहले से बनवा रखते हैं। क्योंकि पीछे क्या भरोसा, लोग बड़ी कब बनाएं न बनाएं! तो अपनी कब पहले ही बना रखते हैं। बड़ी—बड़ी कब्रें बनाई गई हैं। और आदमी मरकर उतनी ही जगह लेता है, जितना गरीब लेता है, उतना ही अमीर लेता है।
अगर जिंदगी में
भी काम्य कर्म छूट जाएं, तो तुम्हारी जरूरतें
भी वही हैं, जो गरीब की हैं। अमीर की भी वही हैं, गरीब की भी वही हैं। प्यास लगती है, पानी चाहिए। भूख
लगती है, भोजन चाहिए। त्याग का अर्थ होगा, संन्यास का अर्थ होगा, जरूरत ही शेष रह जाए, गैर—जरूरत हट जाए। जो गैर—जरूरी
है, जो किसी कामना के कारण पैदा हुआ है, जो किसी पागलपन से पैदा हुआ है, वह हट जाए। अगर तुम
इसे ठीक से समझ लो, तो तुम पाओगे, जीवन
बड़ा सरल हो जाता है। चाहिए ही कितना कम है!
सुखी होने के
लिए बहुत कम चाहिए; दुखी होने के लिए
बहुत ज्यादा चाहिए। दुख छोटे से नहीं होता। दुख के लिए बड़ा विराट आयोजन चाहिए। अगर
निश्चित रहना हो, बड़े थोड़े में हो जाता है। लेकिन चिंता
चाहिए हो, तो थोड़े में नहीं होता, उसके
लिए सिकंदर बनना जरूरी है।
इसलिए तुम जितना
इकट्ठा करते जाओगे, उतना ही पाओगे कि
दुखी और चिंतित होते जाते हो। फिर भी गणित तुम्हारी समझ में नहीं आता। तुम सोचते
हो, शायद थोड़ा और ज्यादा हो जाए, तो
फिर सुखी हो जाऊंगा। और ज्यादा हो जाता है, और दुखी हो जाते
हो। वही मन जो तुम्हें यहां तक ले आया, कहता है, अब और थोड़ा कर लो, तो बिलकुल सुखी हो जाओगे। और ऐसे
वह तुम्हें लेता चलता है। अगर तुम गौर से देखोगे, तो तुम
पाओगे, जब तुम्हारे पास कम था तब तुम सुखी थे।
सभी को ऐसा लगता
है कि बचपन में सुख था, उसका कुल कारण इतना
है कि बचपन में तुम्हारे पास कुछ भी नहीं था, कोई परिग्रह
नहीं था। कुल कारण इतना है कि तुम्हारी जरूरतें भर जरूरतें थीं। भूख लगती थी,
भोजन कर लेते थे। प्यास लगती थी, पानी पी लेते
थे, फिर खेलने बाहर निकल जाते थे। थक गए, तो घर आकर सो जाते थे। कुछ भी न था, मालकियत कोई भी
न थी।
छोटे बच्चों को
गौर से देखो। रंगीन कंकड़—पत्थर उन्हें इतना
आनंदित कर देते हैं, जितने हीरे—जवाहरात
भी तुम्हें न कर सकेंगे। तितलियों के पंख बीन लाते हैं और घर ऐसे आते हैं, जैसे कि सम्राट होकर चले आ रहे हैं। उनके खीसों में हाथ डालो, कंकड़, पत्थर, सीप, न मालूम क्या—क्या तुम पाओगे! रात भी उनसे उन्हें
निकालो तो उनका मन नहीं होता, वे कहते हैं कि रहने दो। वह
उनका धन है, तुम्हें पता नहीं; तुम
उनका धन ले रहे हो। बड़े सरल हैं, छोटा—सा
सब कुछ है, बहुत है, पर्याप्त है।
फिर जैसे—जैसे तुम्हारे पास चीजें आनी शुरू होती हैं। जिस दिन
बच्चे के मन में मालकियत का स्वर उठता है, उसी दिन चिंता
शुरू हो जाती है, उसी दिन बचपन समाप्त हो गया, बच्चा मर गया। अब कोई और दूसरा प्रविष्ट हो गया। अब यह दौड़ चलेगी मरते दम
तक। और जिंदगी भर बार—बार तुम्हें याद आएगी कि बचपन बड़ा सुख।
था।
ज्ञानी पुरुष
कहते हैं, बच्चे जैसे ही जीओ। जरूरत की चीज चाहिए, निश्चित चाहिए। उसके लिए जो कर्म करना पड़े, उसके
त्याग को कोई भी नहीं कहता। लेकिन जो व्यर्थ की कामनाएं हैं, उनकी पूर्ति के लिए जो कर्म किए जाते हैं, वे छोड़
दो।
मुझसे लोग कहते
हैं, समय नहीं है ध्यान के लिए। कर क्या रहे हो चौबीस घंटे?
बहुत काम का जाल है। ध्यान ही आखिर में काम आता है; शेष सब किया हुआ व्यर्थ हो जाता है। जिसने जीवन में थोड़े से क्षण ध्यान के
पा लिए, वही बचाए हुए सिद्ध होते हैं। बाकी सब, बाकी सब नाली में बह गया, कुछ काम का नहीं आता।
लेकिन व्यर्थ को हम करने में संलग्न हैं; सार्थक को करने के
लिए समय नहीं है!
कृष्ण कहते हैं, कितने ही पंडितजन काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास
कहते हैं….।
यह एक दृष्टि है, यह एक मार्ग हुआ संन्यास तक पहुंचने का। और कितने ही
विचक्षण पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं.।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, ऐसे भी विचक्षण पुरुष हैं..।
जीवन सुंदर है
इसीलिए कि यहां बड़े भिन्न होने के उपाय हैं। यहां अगर गुलाब ही गुलाब के फूल होते, तो बड़ी ऊब पैदा कर देते। यहां हजार—हजार तरह के फूल हैं।
तो कृष्ण कहते
हैं, वे जो कहते हैं—प्रज्ञावान
पुरुष हैं वे भी—कि काम्य कर्म छोड़ दो, पर ऐसे विचक्षण पुरुष भी हैं, जो कहते हैं, कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है, केवल फल का त्याग कर
दो।
इनको विचक्षण
कहते हैं। वे कहते हैं कि इनको बड़ी अनूठी दृष्टि उपलब्ध हुई है। इनकी दृष्टि अनूठी
है, साधारणत: समझ में न आएगी।
पहली तरह के जो
पुरुष हैं, उनकी बात साधारणत: समझ में आ
जाती है; अड़चन नहीं है। जरूरत का काम करो, गैर—जरूरत का छोड़ दो। सीधा गणित है। इसलिए पहले तरह
के पुरुषों का भारी प्रभाव पड़ा है। महावीर, बुद्ध सभी पहली
तरह के पुरुष हैं।
दूसरी तरह के
पुरुष तो कृष्ण हैं, जनक हैं। वे बड़े
विचक्षण लोग हैं। वे कहते हैं, कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है।
छोड़ना, पकड़ना क्या है? सिर्फ फल त्याग
कर दो। वे कहते हैं, फल की भर आकांक्षा न हो। फिर तुम्हें
राज्य भी बनाना हो, तो बनाए चले जाओ। कोई हर्जा नहीं है। फल
की आकांक्षा न हो। पाने का कोई खयाल न हो।
बहुत कठिन है
लेकिन। तुम्हें भी लगेगा कि बात तो दूसरी ही ठीक है, इसलिए नहीं कि दूसरी ठीक लगती है। दूसरी ठीक लगेगी कि उसमें कामना को बचा
लेने का उपाय लगता है। उसमें लगता है, तो फिर कोई हर्जा ही
नहीं है। जब जनक भी ज्ञान को उपलब्ध हो गए राजमहलों में रहकर, तो हम भी हो जाएंगे।
मगर तब तुम चूक
जाते हो। तुम अगर कामवासना के कारण सोच रहे हो कि दूसरी बात सरल है, तो तुम गलती में पड़ रहे हो। दूसरी बात पहली से ज्यादा
कठिन है।
जिस काम की
वासना चली गई हो, उसको न करना बहुत
आसान है; सिर्फ फल त्याग करना बहुत कठिन है। उसका मतलब है,
आधे का त्याग और आधे का जारी रखना। उसका अर्थ यह हुआ कि काम तो वैसा
ही करना, जैसे सांसारिक लोग कर रहे हैं, लेकिन बिलकुल विभिन्न दृष्टि से करना। दुकान, चलाना,
लेकिन लाभ की भावना न रखना। इससे सरल है दुकान छोड्कर पहाड़ भाग
जाना। क्योंकि उसमें मामला बिलकुल साफ है। दुकान करनी है, तो
दुकान करो; पहाड़ जाना है, पहाड़ चले
जाओ।
लेकिन दूसरे जो
विचक्षण पुरुष हैं, वे कहते हैं, दुकान पर ऐसे बैठो, जैसे पहाड़ पर बैठोगे।
यह जरा सूक्ष्म
है, ज्यादा नाजुक है। इसमें खतरा है। खतरा यह है कि कहीं
तुम दुकान पर ऐसे ही न बैठे रहो, जैसे दुकान पर दूसरे लोग
बैठे हैं; और यह भांति बना लो कि हम पहाड़ पर हैं। हमारी कोई
फलेच्छा थोड़े ही है! हमारी कोई फल की आकांक्षा थोड़े ही है! हम तो यह कर्तव्यवश किए
चले जा रहे हैं। और भीतर फल की इच्छा है।
तुम सारी दुनिया
को धोखा दे सकते हो, लेकिन अपने को कैसे
दोगे? और असली सवाल अपना है। अपने भीतर तुम जरा भी देखोगे,
तो साफ पाओगे कि धोखा दे रहे हो। क्योंकि काम, फल तुम्हारे भीतर गूंजता ही रहेगा।
वस्तुत: दुकान
पर बैठे लोग दुकान पर बैठना नहीं चाहते हैं, मजबूरी है, फल पाने के लिए बैठना पड़ता है। अगर
उन्हें भी कोई मिल जाए, कि दुकान पर न बैठो, यह ताबीज ले लो—कोई सत्य साईं बाबा—इससे बिना कुछ किए फल की प्राप्ति होगी, तो वे भी
पहाड़ जाने को तैयार हैं। कौन नासमझ दुकान पर बैठने का रस ले रहा है! लेकिन बिना
दुकान पर बैठे फल नहीं मिलता। बड़ा मकान बनाना है, वह नहीं
बनता। पहाड़ पर बैठने से नहीं बनेगा। इसलिए मजबूरी में वे काम में लगे हैं।
अगर तुम बाजार
में इस तरह हो सको, जैसे तुम एकांत में
होओ; तुम काम ऐसे कर सको, जैसा कि
फलाकांक्षी करता है, बिना फलाकांक्षा के, तो तुमने बड़ी विचक्षण दृष्टि पा ली। तब कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है। तब तो
इतना ही समझना काफी है कि फल उसके हाथ में है, कर्म मेरे हाथ
में है। करना मुझे है; फल देना न देना उसकी मर्जी। फिर जो वह
तुम्हें दे दे, तुम उससे ही तृप्त हो। न दे, तो न देने से तृप्त हो। छीन ले, छिन जाने से तृप्त
हो। फिर तुम्हारी तृप्ति को कोई नहीं तोड़ सकता।
इसको तुम कसौटी
समझ लो। अगर तुम्हारी तृप्ति में अंतर पड़ता हो; दुकान में लाभ होता हो, तो तुम्हारे पैर जरा तेजी से
और प्रसन्नता।। चलते हों, तुम तृप्त मालूम होते हो; हानि होती हो, तो तुम उदास हा जाते हो, दीन—हीन हो जाते हो, पैर
लथडाने लगते हैं; तो फिर मत समझना कि तुमने फलाकांक्षा का
त्याग कर दिया है।
बुद्ध और महावीर
का मार्ग सरल है, जनक और कृष्ण का बहुत
कठिन है। इसलिए वे कहते हैं, कोई विचक्षण पुरुष! कभी—कभी कोई ऐसा अदभुत, बहुत अनूठा व्यक्ति ही इसको साध
पाता है; कि महल में बैठा है और उसे पता ही नहीं है कि यह
महल है; कि हीरे—जवाहरातों से घिरा है,
लेकिन घिरा हो न घिरा हो, सब बराबर है।
हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को
संन्यास जानते हैं और कितने ही विचक्षण पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग
कहते हैं। तथा कई मनीषी ऐसा कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं.।
ऐसा भी एक वर्ग
है मनीषियों का, जानने वालों का, जो कहता है, सभी कर्म त्यागने योग्य हैं। कर्म मात्र
दोषयुक्त है। तुम जो भी करोगे, उसमें ही दोष लगेगा। श्वास भी
लोगे, तो भी हिंसा होती है। पानी भी पीओगे, तो पानी के कीटाणु मरेंगे। भोजन करोगे, हिंसा होगी।
चलोगे, पैर रखोगे, छोटे जीवाणु दबेंगे
और हत्या होगी। तो ऐसे भी मनीषी हैं, जो कहते हैं कि कोई भी
कर्म करोगे, दोष लगेगा ही। इसलिए अकर्म को उपलब्ध हो जाओ;
कर्म करो ही मत। और धीरे— धीरे कर्म त्याग
करते जाओ। और अंतिम लक्ष्य वह है, जहां तुम ऐसी घड़ी में
पहुंच जाओ, जहां कोई भी कर्म न होता हो। तभी तुम मुक्त हो
सकोगे।
वे भी ठीक कहते
हैं।
कृष्ण एक गहन
समन्वय हैं। उन्होंने भारत ने जो भी जाना था तब तक, उस सभी को गीता में समाविष्ट कर लिया है। उनका किसी से कोई विरोध नहीं है।
वे सभी के भीतर सत्य को खोज लेते हैं।
इसलिए गीता सार—ग्रंथ है। वेद को अगर भूल जाओ, तो
चलेगा। क्योंकि जो भी वेद में सार है, वह गीता में आ गया।
महावीर विस्मृत हो जाएं, चलेगा। क्योंकि महावीर का जो भी सार
है, वह गीता में आ गया। सांख्य शास्त्र न बचे, चलेगा। गीता में सारी बात महत्व की आ गई है।
अगर भारत के सब
शास्त्र खो जाएं, तो गीता पर्याप्त है।
कोई भी प्रज्ञावान पुरुष गीता से फिर से सारे शास्त्रों को निर्मित कर सकता है।
गीता में सारे सूत्र हैं। तो गीता निचोड़ है।
गीता अकारण ही
करोड़ों लोगों के हृदय का हार नहीं हो गई है; अकारण ही नहीं हो गई है।
जब पहली दफा
जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक शापेनहार ने गीता पढ़ी, तो उसने सिर पर रखी और नाचने लगा। शापेनहार को किसी ने कभी नाचते नहीं
देखा था। वह बहुत गंभीर चित्त आदमी था, नाचना जंचता ही नहीं
था उसको। उसका पूरा दर्शन ही उदासी, दुखवाद है। वह कहता है,
हंसी की तो कोई सुविधा ही नहीं है जगत में। वह नाचने लगा।
उसके पास बैठे
मित्रों ने कहा, तुम पागल हो गए शापेनहार! क्या
कर रहे हो? उसने कहा कि ऐसा ग्रंथ कभी देखा नहीं, जिसमें सब आ गया। ऐसा ग्रंथ कभी देखा नहीं, जिसमें
सभी विरोधों के बीच सामंजस्य हो गया; जिसमें किसी का खंडन
नहीं किया गया है और सभी को स्वीकार कर लिया गया है!
हिंदुओं ने ऐसे
ही कृष्ण को पूर्ण अवतार नहीं कहा है। महावीर थोड़े अधूरे लगते हैं; एकांगी मालूम होते हैं। और अगर सभी महावीर हो जाएं,
तो संसार को बड़ा धक्का लगेगा, भारी नुकसान
होगा। फिर आगे महावीर होने की भी संभावना खतम हो जाएगी। नहीं, महावीर इक्के—दुक्के ठीक, नमूने
की तरह अच्छे हैं। लेकिन सभी जगह वे ही खड़े हो जाएं, जहां
निकलो, वहीं वे ही खड़े हैं, बहुत
घबड़ाने वाला हो जाएगा। नमक की तरह ठीक। पूरा भोजन महावीर का नहीं हो सकता।
इसलिए मैं
निरंतर कहता हूं जैन कोई संस्कृति पैदा नहीं कर पाए। वे कर नहीं सकते, क्योंकि नमक से कहीं पूरा भोजन बना है! जैन केवल एक
वैचारिक समाज रह गया, एक विचार का समूह रह गया। संस्कृति
नहीं है जैनों के पास। अगर तुम जैनियों से कहो—जैसा मैंने
कहा, लेकिन कोई जवाब नहीं देता—अगर तुम
उनसे कहा कि पच्चीस सौ वर्ष महावीर के पूरे हो गए तुम बड़ा शोरगुल मचा रहे हो,
जगह—जगह आयोजन, सभा,
समारंभ! तुम एक काम करके दिखा दो, एक जैन
बस्ती बसाकर दिखा दो, जिसमें सब जैन हों, तो हम मान लेंगे कि तुम्हारे पास कोई संस्कृति है। तुम नहीं बसा सकते,
क्योंकि चमार कौन होगा? भंगी कौन होगा?
खेती कौन करेगा?
इसलिए जैन कभी
समाज भी नहीं बन पाए, संस्कृति भी नहीं बन
पाए; वे हिंदुओं की छाती पर बैठे रह गए। उनका अपना कोई आधार
नहीं है जमीन में। इसलिए जैन समाज को अलग कहने का कोई अर्थ ही नहीं है; वह हिंदुओं का एक अंग है। उसको अलग कहने का अर्थ तभी हो सकता है, जब वे बता दें कि हम एक प्रयोग भी करके बता सकते हैं कि यह छोटी बस्ती है
हजार लोगों की, इसमें सब जैन हैं। अगर तुम सब मिलकर एक बस्ती
भी नहीं बसा सकते, तो तुम सर्वांग नहीं हो, अधूरे हो।
पूरा नमक भोजन
नहीं बन सकता। नमक बिलकुल जरूरी है; उसके बिना भोजन बड़ा बेस्वाद हो जाएगा।
तो कभी—कभी इक्का—दुक्का महावीर
प्रीतिकर हैं, मगर उनका समूह नहीं। अन्यथा वे जान ले लेंगे।
इसलिए महावीर अधूरे हैं। बुद्ध अधूरे हैं।
यद्यपि महावीर
से ज्यादा क्षमता है बौद्धों की। उन्होंने समाज बनाकर बता दिए हैं, उन्होंने संस्कृति सम्हालकर बता दी। लेकिन उनको
समझौते करने पड़े। इसलिए अगर बुद्ध वापस लौटें, तो जापान,
चीन, बर्मा या श्याम आदि बौद्धों के जो मुल्क
हैं, वे किसी को बौद्ध नहीं कहेंगे। क्योंकि उन्होंने इतने
समझौते कर लिए हैं, जिसका हिसाब नहीं है। वह बुद्ध की पूरी
शुद्धता ही खो गई है। बुद्ध ने खुद ही कहा है कि मेरा धर्म पांच सौ साल से ज्यादा
नहीं चलेगा। क्या कारण होगा? जब तुम बहुत शुद्ध बात कहोगे,
तो ज्यादा देर नहीं टिक सकती इस अशुद्ध दुनिया में। पांच सौ साल भी
टिक जाए तो बहुत। वह भी आशा है।
मेरे देखे तो जब
तक बुद्ध रहते हैं, तभी तक बुद्धत्व
टिकता है, उससे ज्यादा नहीं टिक सकता। क्योंकि वह बात ही
इतनी शुद्ध है, उसमें जड़ें नहीं हैं जमीन में प्रवेश करने
की। वह आकाश में मंडराता हुआ बादल है। वह ज्यादा देर नहीं टिक सकता। कभी—कभार आएगा, चला जाएगा।
कृष्ण संपूर्ण
हैं। कृष्ण पूरी सीढ़ी हैं। बुद्ध, महावीर बस सीढ़ी का
आखिरी हिस्सा हैं, अधर में लटके हुए। उनका दूसरा हिस्सा जमीन
से नहीं टिका है। वे शुद्ध हैं; अशुद्धि से बहुत भयभीत हैं।
कृष्ण समाहित कर लेते हैं सभी को, अशुद्धि को भी।
और मेरे माने
वही शुद्धि वास्तविक है, जो अशुद्धि को भी
समाहित कर लेती हो। नहीं तो शुद्धि ही क्या? जो अशुद्धि को
भी न पी जाए, वह शुद्धि क्या? वह अमृत
अमृत नहीं है, जो जहर को न पी जाए। अगर जहर से अमृत नष्ट
होता हो, तो जहर से कमजोर है, उसकी
क्या कीमत! वह जहर को पी ले और अमृत बना दे। कृष्ण ने सारी दृष्टियों को समाहित कर
लिया है, और बिना किसी अड़चन के!
जो कहते हैं कि
काम्य कर्मों का त्याग संन्यास है, वे भी पंडितजन हैं, वे भी जानने वाले लोग हैं। मगर
उनका जानना भी एक दृष्टि है, एक अंग है, एक ढंग है; वह भी अधूरा है। फिर ऐसे विचक्षण पुरुष
हैं, जो कहते हैं, कर्मफल का त्याग ही
त्याग है। वे भी ठीक ही कहते है। फिर ऐसे मनीषी हैं, जो कहते
हैं, सभी कर्म दोषयुक्त है।
महावीर यही कहते
हैं, कर्म मात्र दोषयुक्त है, इसलिए
त्यागने योग्य हे। वे भी ठीक कहते हैं। वे भी मनीषी हैं; उन्होंने
भी बड़ा जाना है, ऐसे ही नहीं कह दिया है।
और दूसरे
विद्वान भी हैं, जो कहते हैं, यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।
एक और वर्ग है
चौथा, वह भी बुद्धिमानों का है, वह भी
नासमझों का नहीं है। वे कहते हैं कि तीन तरह के कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं यज्ञ,
दान और तप।
तपरूप कर्म वे
हैं, तुमने जो—जो गलत किया है,
उसे काटने के लिए किए जाते हैं। कांटा लग गया है, तो एक और कांटा खोजना पड़ता है उसे निकालने को, नहीं
तो लगे काटे को कैसे निकालोगे? गलत कर्म तुमने किए हैं,
तो उनको निकालने के लिए तुम्हें दूसरे शुभ कर्म करने पड़ेंगे। वे भी
कर्म हैं। मगर करने पड़ेंगे, क्योंकि गलत कर्म तुम कर चुके
हो।
तुमने किसी को
गाली दे दी, अब माफी मांगनी पड़ेगी, ताकि सब संतुलित हो जाए। गाली से जो असंतुलन पैदा हुआ था, वह भी कर्म था। माफी मांगना भी उसी तरह कर्म है। दोनों में वाणी का उपयोग
हुआ है, दोनों में मुंह का उपयोग हुआ। लेकिन माफी मांगनी
पड़ेगी, ताकि संतुलन आ जाए।
तपरूप कर्म का
अर्थ है, संतुलन लाने वाले कर्म; जिनसे
जीवन संतुलित होता है। तुमने बहुत अपराध किए हैं, थोड़ी सेवा
भी करो। तुमने बहुत चूसा है, विसर्जित भी करो। तुमने बहुत
छीना है, बांटों भी।
नहीं तो यह होगा
कि अब तक तो काफी छीना, लूटा, दुख दिया, और अब अचानक तुमको यह दर्शनशास्त्र समझ
में आ गया कि सब कर्म त्याज्य हैं। अब तुम कुछ भी नहीं करते, अब तुम बैठ गए। तो वे जो कांटे लगे हैं, वे लगे रह
जाएंगे, वे छिदे रह जाएंगे। उन्हें काटो, उन्हें निकालो। उनके लिए तपरूप कर्म।
तुमने जो—जो छीना है, जहां—जहां हिंसा हुई है, जहां—जहां
शोषण हुआ है—और निरंतर हुआ है, सारे
जीवन की यात्रा शोषण, हिंसा की है—दान
करो, बांट दो। जहां से लिया है, वहां
लौट जाने दो। ताकि संतुलन आ जाए।
और यज्ञ……।
यज्ञ उस कर्म का
नाम है, जो तुम अपने लिए नहीं करते, जो
तुम समष्टि के लिए करते हो। जो तुम अपने लिए नहीं करते, सबके
लिए करते हो। यज्ञ वैसा विराट कर्म है, जिसमें तुम्हारी अपनी
कोई स्वयं की आकांक्षा नहीं है। जो स्वयं की आकांक्षा से किया जाए, वह यज्ञ नहीं है। सबके लिए करते हो।
समझो, तुम एक अस्पताल बनाते हो, वह
यज्ञरूप हो जाता है। तुम अकेले ही थोड़े उसमें बीमार पड़कर इलाज करवाओगे, सभी के काम आएगा। तुम एक विद्यापीठ बनाते हो। तुम्हारे बच्चे ही थोड़े
उसमें पढ़ेंगे; सबके बच्चे उसमें पढ़ेंगे।
जो—जो कर्म सिर्फ स्वार्थ के लिए नहीं किए जाते, वे सभी यज्ञरूप हैं। स्वार्थ के लिए तुमने बहुत कर्म किए हैं, अब तुम थोड़े परार्थ के कर्म करो।
कृष्ण कहते हैं, ऐसे भी विद्वान हैं, जो कहते
हैं, यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने
योग्य नहीं हैं। बाकी सब कर्म त्यागने योग्य हे।
ये चार
दृष्टियां हैं। चारों सही हैं और चारों तरह के लोग मिल जाएंगे जिनके लिए ये सही
हैं। इसलिए तुम इसकी बहुत फिक्र मत करना कि कौन सही है, तुम ज्यादा इसकी फिक्र करना कि मेरे साथ किस विचार का
तालमेल बैठता है।
गीता तो ऐसे है, जैसे केमिस्ट की दुकान होती है। उसमें लाखों दवाइयां
हैं; वे सभी काम की हैं, इसीलिए हैं।
तुम कोई भी दवाई उठाकर मत ले आना! तुम अपने प्रिस्किपान को ले जाना, वह जो डाक्टर ने लिखकर दिया है। तुम्हारे योग्य कोई दवा होगी; सभी दवाएं तुम्हारे योग्य न होंगी।
गीता भारत की
खोजी गई सभी औषधियों का संग्रह है। उसमें से तुम चुन लेना; उसमें तुम्हें जो मौजूं लगे, उसमें
तुम्हें जो सत्यरूप लगे। सभी सत्यरूप है, पर तुम्हें जो
सत्यरूप लगे, तुम उसे आत्मसात कर लेना। तुम उससे यात्रा पर
निकल जाना। और सभी मार्ग वहीं पहुंचा देते हैं।
मंजिल तो एक है, मार्ग अनेक हैं। दृष्टि साफ हो, तो किन्हीं भी मार्गों से चलकर आदमी वहीं पहुंच जाता है। तुम बैलगाड़ी से
चलो, थोडी देर ज्यादा लगेगी। तुम ट्रेन से चलो, थोड़े जल्दी आ जाओगे। कुछ लाभ ट्रेन के हैं, कुछ लाभ
बैलगाड़ी के हैं; कुछ हानियां बैलगाड़ी की हैं, कुछ हानियां ट्रेन की हैं।
बैलगाड़ी से
चलोगे, तो गति तो नहीं होगी, लेकिन
अनुभव ज्यादा होगा। गति तो बहुत धीमी होगी, लेकिन पहाड़—पर्वत, नदी—नाले सभी को तुम
देखते, जीते हुए आओगे। ट्रेन से चलोगे, जल्दी पहुंच जाओगे। लेकिन इतनी तेजी से निकलती रहेगी ट्रेन कि बस झलक
मिलेगी पहाड़ की, नदी की, नालों की।
हवाई जहाज से
आओगे, कोई झलक भी नहीं मिलेगी। यहां बैठे नहीं कि उतरने का
समय आ जाएगा। चाय पी पाओगे ज्यादा से ज्यादा। और अब और हुत वेग के यान बनते जा रहे
हैं, जिनमें तुम पट्टी बांध पाओगे और खोल पाओगे। और पहुंच
जाओगे। अनुभव से वंचित हो जाओगे।
राह का भी बड़ा
आनंद है।
मेरे एक मित्र
हैं, वह हमेशा पैसेंजर गाड़ी से ही चलते हैं। धनी हैं,
पर बड़े समझदार हैं। दिल्ली पहुंच सकते हैं घंटे भर में; जहां रहते हैं, वहा से हवाई जहाज की भी सुविधा है।
मगर वे जाते हैं ट्रेन में और पैसेंजर! कई जगह बदलते हैं। तीन दिन लग जाते हैं
दिल्ली पहुंचने में।
एक दफा मुझे
अपने साथ ले लिए। मैंने कहा, यह मामला क्या है?
चलो मैं भी चलूं! निश्चित, वे आनंद लेते हैं
राह का। उनको एक—एक स्टेशन की गतिविधि पता है। कहां रसगुल्ले
अच्छे बनते हैं! कहां भेजिए अच्छे बनते हैं! बड़ा भोगते हैं मार्ग को। वे दुख पाते
ही नहीं पैसेंजर में। हर स्टेशन पर उतरते हैं; स्टेशन मास्टर
से मिल आते हैं; कुलियों से पहचान…..।
जिंदगी भर वे उसी रास्ते पर तीन—तीन दिन यात्रा करते रहे हैं
अनेक बार। वे कहते हैं, यह तो अपना…… इतनी
जल्दी क्या है? जाना कहां है?
वे भी ठीक कहते
हैं। राह भी अपना आनंद लिए है। फिर राहें भी अलग—अलग
हैं। मंजिल एक है।
तुम अपना रस
पहचानना, अपना भाव समझना और राह चुन लेना।
कृष्ण सभी राहें
बता देते हैं। फिर वे अपना भाव भी बता देंगे कि उनका भाव क्या है? उनकी क्या दृष्टि है? ऐसे तो
उन्होंने अपनी दृष्टि कह ही दी। जैसे ही उन्होंने कहा कि कुछ विचक्षण पुरुष,
वहीं उन्होंने अपना रस भी बता दिया। जब उन्होंने कहा कि कुछ विचक्षण
पुरुष, कुछ अदभुत पुरुष। बस, उन्होंने
चुनाव भी कर दिया। बाकी को कहा, पंडित हैं, ज्ञानी हैं, समझदार हैं, विद्वान
हैं; पर एक को कहा, विचक्षण, अनूठी दृष्टि वाले लोग। वहीं उन्होंने अपना झुकाव दिखा दिया।
कृष्ण स्वयं ही
वे विचक्षण दृष्टि वाले पुरुष हैं। अगर उनकी बात तुम्हें जंच जाए तो बड़ी अनूठी है।
क्योंकि कुछ छोड़ना नहीं पड़ता और सब छूट जाता है; कुछ करना नहीं पड़ता और सब हो जाता है।
सार में उस
विचक्षण दृष्टि की बात इतनी ही है कि तुम परमात्मा के उपकरण हो जाते हो, निमित्त मात्र। वह कराता है, तुम
करते हो। वह देता है, तुम लेते हो। वह छीनता है, तुम छिन जाने देते हो। तुम बीच से हट जाते हो।
तुम कहते हो, जो तेरी मर्जी। बाजार में रखेगा, बाजार में रहेंगे। मगर वहां भी तेरा ही आनंद है; तूने
ही रखा है। और तुझसे हम ज्यादा समझदार नहीं हैं। पहाड़ भेज देगा, पहाड़ चले जाएंगे। तू जहां भेज देगा, वहीं चले
जाएंगे। तेरे ही कारण जा रहे हैं, यह हमारी खुशी है। तेरे काम
से जा रहे है, यह हमारा आनंद है। तू हमसे कुछ उपयोग ले रहा
है, हम धन्यभागी हैं।
(साभार- ओशो प्रवचन)